कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने अमेरिकी शॉर्टसेलर हिंडनबर्ग रिसर्च द्वारा अडानी समूह के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच के लिए एक समिति बनाने के सुप्रीम कोर्ट के 13 फरवरी के निर्देश पर गुरुवार को कहा कि केंद्र सरकार द्वारा ‘विचारार्थ विषयों’ के तहत एक समिति के गठन से ‘शायद ही कोई प्रतीक चिन्ह या स्वतंत्रता या पारदर्शिता का आश्वासन’ मिल सकता है।
हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट के बाद सरकार घिरी हुई है। विपक्ष लगातार जांच की मांग कर रहा है। कांग्रेस इस मुद्दे पर लगातार मुखर है। उसकी मांग है कि अडानी समूह पर हिंडनबर्ग की रिपोर्ट में लगाए गये आरोपों पर संसदीय जांच कमेटी से जांच कराई जाए। बजट सत्र में इसको लेकर खूब हंगामा हुआ लेकिन सरकार ने अभी तक इस मांग को नहीं माना है।
इस सबसे इतर सुप्रीम कोर्ट में जांच के आदेश देने के लिए याचिकाएं दायर की गई हैं। अलग-अलग संस्थांये भी अडानी समूह की तमाम मसलों पर जांच कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को एक जांच समिति के गठन का आदेश दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केंद्र सरकार द्वारा गठित की जाने वाली जांच समिति कांग्रेस के राज्यसभा सांसद जयराम रमेश ने कहा कि केंद्र सरकार की शर्तों पर बनी कोई जांच समिति शायद ही ईमानदारी से मुद्दे की जांज करे। जांच करने की बजाये यह जांच को भटका सकती है। इसका कारण अडाना और मोदी के निजि संबंध हैं। ऐसे में निस्पक्ष जांच की उम्मीद बेमानी है।
उन्होंने कहा कि जो आरोप लगाए गये हैं, वह सत्ता, भारत सरकार और अडानी समूह के बीच आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ऐसे में सरकार द्वारा प्रस्तावित शर्तों के साथ बनी जांच समिति से स्वतंत्र और पारदर्शी जांच की उम्मीद बहुत कम है।
सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को हिंडनबर्ग-अडाणी मामले की जांच के लिए विशेषज्ञ स्तर की समिति के गठन के सुझाव को स्वीकार किया था, इस जांज समिति के गठन पर केंद्र सरकार की भी सहमति थी। सरकार ने कोर्ट को आश्वासन दिया था कि वह जल्द ही समिति के लिए विशेषज्ञों के नाम सुझाएगा। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार की तरफ से कहा था कि हम सीलबंद लिफाफे में समिति में शामिल किए जाने वाले विशेषज्ञों के नाम सुझाएंगे। याचिकाकर्ताओं द्वारा इन नामों पर चर्चा और विरोध नहीं किया जाना चाहिए। “सुप्रीम कोर्ट सूची में से जांच दल के सदस्यों के नाम चुन सकता है।
रमेश ने समाचार रिपोर्टों का हवाला देते हुए कहा कि मेहता का सीलबंद लिफाफे में नाम देने का सुझाव इस बात को पुख्ता करता है कि प्रस्तावित समिति सरकार और अडानी समूह के संबंधों की वास्तविक जांच को रोकने के लिए पूर्व योजना का हिस्सा है।
उन्होंने 2001 में शेयर बाजार घोटाले सहित कई औऱ महत्वपूर्ण मामलों की जांच में जेपीसी की भूमिका को याद करते हुए कहा कि इन समितियों की रिपोर्टों ने बहुत सारी गलत प्रथाओं को रोकने में सहायता दी। अगर सरकार और प्रधानममंत्री को जवाबदेह बनाया जाए तो जेपीसी के गठन के अलावा और कोई भी जांच समिति लीपापोती के अलावा और कुछ नहीं है।
जयराम रमेश ने जांच समिति के गठन और उसमें सरकार की भूमिका पर अविश्वास जताते हुए सरकार की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया है। उनकी बात एक हद तक सही भी है कि जब किसी गंभीर मामले की जांज करने के लिए संसदीय व्यवस्था में ही प्रावधान किए गये हैं तब सरकार उन समितियों से जांच कराने से भाग क्यों रही है। जबकि ऐसा पहली बार नहीं है कि इस तरह की मांग उठी हो।
लगभग हर सरकार के सामने कोई ऐसी स्थिति आती है जब उसे इस तरह के हमलों का सामना करना पड़ता है। खुद भाजपा जब विपक्ष में थी उसने न जाने कितनी बार कांग्रेस सरकार को घेरने के लिए जेपीसी से जांच की मांग को उठाया। और सरकार ने भी विपक्ष की बात मानते हुए इसका गठन किया। समिति की रिपोर्टों के बाद कई मंत्रियों को इस्तीफे तक देने पड़े। मोदी की अगुवाई वाली भाजपा में सरकार किसी का इस्तीफा तो छोड़िए, जांच समिति का गठन हो जाए यही बहुत बड़ी बात है।
लोकतांत्रिक परंपरा में पक्ष विपक्ष एक दूसरे पर हमलावर रहते हैं, यह राजनिती का हिस्सा है लेकिन किसी गंभीर मसले पर एक दूसरे की बात मानकर आगे बढ़ने की परंपराएं भी रही हैं। और सबको साथ लेकर चलना लोकतंत्र का तकाजा भी है। लेकिन विपक्ष द्वारा सरकार पर इस तरह का अविश्वास भी शायद ही कभी दिखाया गया हो।