राहुल गांधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की करीब 3500 किलोमीटर की भारत जोड़ो यात्रा का आज अंतिम दिन था। पांच महीने तक चली इस यात्रा का आज समापन हो गया। यात्रा के समापन पर होने वाली एक रैली का आयोजन किया गया जिसको कश्मीर में हो रही बर्फबारी के बाद भी राहुल गांधी ने संबोधित किया। रैली में विपक्ष के कई नेता शामिल हुए। माना जा रहा था कि इस रैली के बहाने कांग्रेस विपक्षी एकता को प्रदर्शित करने की कोशिश करने वाली थी, जोकि आगामी लोकसभा चुनाव के लिहाज से महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा था।
पांच महीने तक चली इस यात्रा को वैसे तो गैर राजनीतिक यात्रा कहा जाता रहा है, जो देशभर में बढ़ रही नफरत की सांप्रदायिकता के खिलाफ शांति का संदेश लेकर आगे बढ़ रही थी। लेकिन किसी भी राजनीति दल या नेता द्वारा आयोजित की जानी वाली ऐसी यात्राय़ें हमेशा से राजनीतिक ही रहीं हैं, फिर वो महात्मा गांधी का नमक कानून के विरोध में किया दांड़ी मार्च हो फिर हालिया भारत जोड़ो यात्रा।
भारत एक बनता हुआ राष्ट्र है जिसमें एक समय पर एक साथ कई राष्ट्रीयताएं सासं लेती हैं। जो भारत की मजबूती भी हैं, लेकिन इनको ढंग से न संभाला जाए तो यह चुनौती भी बन सकती हैं। 2014 में भाजपा सरकार आने के बाद से ये मजबूती चुनौतियों के रूप में परिवर्तित होती गई हैं, औऱ ये चुनौती लगातार बढ़ी है। इसमें सांप्रदायिकता से लेकर अलगाववाद तक भाषा विवाद से लेकर बेतहाशा अमीरी और गरीबी का प्रमुख हैं। आज के सममय में इसको सुलझाया जाना बहुत जरूरी है। लेकिन कोई भी नेता जो लगातार चुनावी राजनीति में सक्रिय है, उसके पास नैतिक आधार है कि वह कहे कि वह भारत जोड़ो जैसा कोई उपक्रम कर रहा है, और इन सब मुद्दों को कैसे हल करेगा इसका कोई खाका उसके पास है क्या? क्योंकि इससे पहले जितनी भी यात्रायें रही हैं, उसमें लगे लोग चुनावी राजनीति से इतर के लोग थे। जिनका नैतिक प्रभाव ज्यादा था बजाए राजनीतिक के और उन्होंने एक विकल्प भी दिया। राहुल जिन मुद्दों से लड़ने की बात कर रहे हैं, उनके पास इससे लड़ने के क्या विकल्प हैं यह यात्रा के खत्म हो जाने के बाद भी सामने नहीं आया है।
इस सबसे इतर भारत जोड़ो यात्रा का मुख्य संदेश नफरत के खिलाफ शांति का संदेश फैलाना था, जिसके लिए मोहब्बत की दुकान जैसे जुमले भी प्रयोग किये गये, यहां सवाल यह है कि उनका यह अभियान सफल होगा क्योंकि सांप्रादायिकता इस समाज के लिए नासूर बन गया है। इसको कुछ महीनों की यात्रा या फिर कुछ फोटो वीडियो के जरिए नहीं मिटाया जा सकता। इससे लड़ने के लिए एक मशीनरी चाहिए जोकि कांग्रेस के पास नदारद है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में जहां कांग्रेस का बड़ा आधार रहा है वहां उसके पास उसके खुद के कैडर का एक नेता भी नहीं है जिसे पार्टी अध्यक्ष बना सके। ऐसे में सबसे निचले स्तर पर कितने लोग उनकी इस लड़ाई में साथ आएंगे बड़ा सवाल है।
राहुल की इस यात्रा का अघोषित मकसद उनका छवि निर्माण करना था, जिसके लिए पार्टी ने पूरी कोशिश भी की। इस यात्रा के बहाने राहुल गांधी एक ऐसे नेता के तौर पर उभर कर सामने आए जो कह सकता है कि वह देश की नब्ज को जानता है, दक्षिण से लेकर उत्तर तक। यह उनकी व्यतिकगत छवि के लिए ठीक भी हो सकता है। लेकिन सवाल यह रह जाता है कि राहुल जिन मुद्दों को लेकर आगे चल रहे थे वे उनको लागू करवा पाएंगे? पुराने अनुभव के हिसाब से तो यही कहा जा सकता है कि ऐसा मुश्किल दिखता है, क्योंकि यात्रा से पहले भी राहुल पार्टी के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे।
राहुल गांधी ने इस पूरी यात्रा के दौरान सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक लगभग हर तरह के मुद्दों पर सरकार को घेरा। इसमें उन्होंने अडानी समूह को मुख्य रूप से निशाना बनाया, नरेंद्र मोदी से करीबी के चलते जिनके कारोबार में पिछले आठ सालों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। यात्रा के समाप्त होने से पहले अमेरिकी रिसर्च फर्म हिंडनबर्ग ने राहुल गांधी के आरोपों को सही साबित भी कर दिया, लेकिन सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी कोई ऐसी वैकल्पिक नीतियों के निर्माण पर जोर देंगे जिससे की इस तरह की मोनोपोली न होने पाए। वर्तमान आर्थिक परिदृश्यों में ये सवाल जरूरी हो जाता है।
पिछले आठ सालों में कई बड़े कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी को अलविदा कहा है। यह कमजोर होती कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती थी कि कैसे अपने लोगों को रोककर रखा जाए? भारत जोड़ो यात्रा ने इन नेताओं पार्टी में जोश भरा है और विश्वास दिलाया है कि पार्टी अगर मेहनत करती है तो उसके नतीजे के तौर पर कुछ बेहतर की उम्मीद कर सकती है। इसको इस तरह से भी देखा जा सकता है कि छोटे स्तर के नेताओं से लेकर बड़े कद वाले नेताओं ने इसको सफल बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत की। इसके लिए वह कांग्रेस पार्टी में चल रही जड़ता को खत्म करने के लिहाज से बेहतर संकेत है। अगर ऐसा होता है को पार्टी आगे आने वाले चुनावों में कुछ बेहतर की उम्मीद कर सकती है।
आज यात्रा के समापन पर कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी अभी भी बहुत हद तक गांधी परिवार पर ही निर्भर है। और यह निर्भरता ऐसी है कि अगर कांग्रेस यहां से उठती है तो उसका पूरा श्रेय राहुल को ही जाएगा। लेकिन केवल एक यात्रा से न तो उनको कोई लाभ होगा और न देश को। पूंजीवाद और फासीवाद के मिले जुले खेल में मध्यमार्ग का रास्ता बहुत कठिन है। लेकिन राहुल गांधी अगर देश के मूल चरित्र मध्यमार्ग की तरफ लाने में थोड़ा सा भी सफल होते हैं तो यह उनकी सफलता मानी जाएगी।